Sunday 16 August 2015

कैसा अजब ये रस्ता है

कैसा अजब ये रस्ता है
मिल जाए तो सस्ता है

चलने वाले को तरस्ता है
सुनते हैं हर जगह वो बसता है

खुद को खोना पड़ता है
खो जाओ तो मिलता है
इंसान क्यों फिर दुनिया में फँसता है

जो चलता है वो हँसता है
रुकते ही शिकंजा कसता है

जन्नत का सज़ायाफ़्ता है
ख़ुदाओं से वाबस्ता है

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