Sunday 28 September 2014

ग़ज़ल 14 वतन से मोहब्बत करे जा रहे हैं

वतन से मोहब्बत करे जा रहे हैं
लुटाने की जाँ तन कसम खा रहे हैं

हवा में हरारत अब हाज़िर नहीं है
मौसम के तेवर बदल जा रहे हैं

श्राद्धों के बाद अब नरातों के चलते
दशहरा दीवाली नज़र आ रहे हैं

बढ़ते हैं बाज़ार, मज़बूत रूपया
डॉलर में पैसे वतन ला रहे हैं

जागा जुनूं है तो करना है अब कुछ
दुश्वारियों पर विजय पा रहे हैं

अज़ाब-ए-सियासत के नामी खिलाड़ी
कर्मों की अपने सज़ा पा रहे हैं

हिंदू मुसलमां रहे अब न कोई
इंसानियत की ग़ज़ल गा रहे हैं


Watan se mohabbat kare jaa rahe hain
Lutaane ki jaa'n tan qasam kha rahe hain

Hawaa mein haraarat ab haazir nahin hai
Mausam ke tewar badal jaa rahe hain

Shraadho'n ke baad ab naraato'n ke chalte
Dashehra Diwaali nazar aa rahe hain

Badhte hain baazaar, mazboot rupya
Dollar mein paisa watan laa rahe hain

Jaaga junoo'n hai to karna hai ab kuchh
Dushwaariyo'n par vijaya pa rahe hain

Azaab-e-siyaasat ke naami khilaadi
Karmo'n ki apne sazaa pa rahe hain

Hindu musalmaa'n rahe ab na koi
Insaaniyat ki ghazal gaa rahe hai


Tuesday 23 September 2014

ग़ज़ल -13 भँवर से कश्ती जो निकले

भँवर से कश्ती जो निकले तो फिर कुछ बात होती है
नाख़ुदा को ख़ुदा मानें तो फिर कुछ बात होती है

छौंक है जो झूठ का लज़्ज़त है दौर-ए-ज़िंदगी
सच्चाई से अगर जी लें तो फिर कुछ बात होती है

अँधेरे में है चाहत रौशनी की इस कदर लाज़िम
दिए अब खून से बालें तो फिर कुछ बात होती है

खुशियाँ खरीदने में ही पागल है ये दुनिया
फ़कीरी में जो पा जाएँ तो फिर कुछ बात होती है

विषरहित व दंतहीन है तो फिर क्या बात है
ज़हर पी कर जो न उगले तो फिर कुछ बात होती है

बिगड़ना अब नहीं अच्छा है बिगड़ी बात के ऊपर
बिगड़ी को बना जो ले तो फिर कुछ बात होती है




Bhanwar se kashti jo nikle to fir kuch baat hoti hai
Naakhuda ko Khuda maanei'n to fir kuch baat hoti hai

Chhonk hai jo jhooth ka, lazzat hai daur-e-zindagi
Sachhaai se agar jee lei'n to fir kuch baat hoti hai

Andhere mein hai chaahat raushni ki is qadar laazim
Diye ab khoon se baalei'n to fir kuch baat hoti hai

Khushiyaan khareedne mein hi paagal hai yeh duniya
Faqeeri mein jo pa jaayein to fir kuch baat hoti hai

Vishrahit va dantheen, hain to fir kya baat hai
Zehar peekar jo na ugle to fir kuch baat hoti hai

Bigadna ab nahin achha hai bigdi baat ke oopar
Bigdi ko bana jo le to fir kuch baat hoti hai

Tuesday 16 September 2014

ग़ज़ल -12 किसको न इंतज़ार

किसको न इंतज़ार मसर्रत का इन दिनों
दिखता नहीं तूफान है हसरत का इन दिनों

गिरगिट भी शर्मसार है इंसान देख कर
बदला है रंग इस तरह, फितरत का इन दिनों

जो दिन गए सुकून से एहसान जानिए
दिखता नहीं चलन अब, इबादत का इन दिनों

किस से गिला करें अब, किस किस को दोष दें
बेहाल हुआ हाल है कुदरत का इन दिनों

ख़ाक हो रहे हैं ख़्वाब, रूह संगसार है
बोझ है ज़हन पे सदाक़त का इन दिनों

हिन्दू हैं मुसलमान हैं, इंसान नहीं हैं
फैला ज़हर हवा में है नफरत का इन दिनों

Sunday 14 September 2014

हिंदी दिवस

 हिंदी दिवस का साया, इक दिन की है ये माया

अंग्रेज़ियत के चलते, हिंदी को लंगड़ा पाया



 हिंदी की कर के हिंदी, मत पूछ क्या कमाया

हिंदी में बात करना जब स्कूल को न भाया



 सादर हमें बुलाया, हिंदी में गीत गाया

अंग्रेज़ी की छवि में हिंदी को पलता पाया



हिंदी की उड़ती खिल्ली ने दिल बहुत दुखाया

खुश हूँ कि बच्चा मेरा इस दौड़ में न आया



Sunday 7 September 2014

ग़ज़ल - 9 पानी गया ऊपर से सर के


पानी गया ऊपर से सर के, कर भला अब कुछ तो कर मुल्क पहुँचा है रसातल, ऐ ख़ुदा अब कुछ तो कर


मैं ही मैं हूँ अब जहां में, और सब पैरों की धूल बदग़ुमानी छोड़ कर, तू बाज़ आ, अब कुछ तो कर


लुप्त होते जानवर, व पेड़-पौधे विश्व से प्रकृति का ह्रास कर, की है ख़ता अब कुछ तो कर


ज़िन्दगी का है तकाज़ा, जो न समझा प्यार को मंज़िल-ए-मक्सूद तो है लापता अब कुछ तो कर


फ़ितरत-ए-आदम ने पहुँचाया है अब रोज़-ए-जज़ा साँस लेना भी न हो जाए सज़ा अब कुछ तो कर

Thursday 4 September 2014

ग़ज़ल -11 मर मर के रोज़ ही जीते हैं

मर मर के रोज़ ही जीते हैं
चल आज तो खुल के जीते हैं

अब बस दफ़्तर और नहीं
कुछ तो भी कर चल जीते हैं

हैरान हूँ अब रफ़्तार से मैं
ज़रा रुक तो सही चल पीते हैं

अब बस भी कर चल जीते हैं
अब शाम हुई चल पीते हैं

भेजे की बस कर दिल की सुन
अब दिल की प्यास में पीते हैं

अब होश की बात का नाम न ले
चल बे-होशी तक पीते हैं

उम्मीद पे दुनिया क़ायम है
अब छुट्टी है चल जीते हैं

हर मोड़ पे मुश्किल ताक़ में है
मुश्किल को जीत के जीते हैं

कुछ और जो अब के न हो सके
दो घूँट ज़हर के पीते हैं

Tuesday 2 September 2014

ग़ज़ल - 10 झुक गया सर शर्म से

झुक गया सर शर्म से और हो गई आँखें भी नम
 अक़्स मेरा देख कर ज़ालिम ज़माना डर गया

लक्ष्य सब का एक है, गाँधी से मतलब है यहाँ
बिकते ईमां देख कर मैं अपने अंदर मर गया

घुटता है दम अब तो मगर, जीना मुझे भी है यहाँ
भेड़ियों के बीच इक बकरी का बच्चा फँस गया


हाथ में पतवार है, तलवार में भी धार है
आया जो तूफान तो कश्ती में पानी भर गया

बद से बदतर हो रहा है, हाल अब इस ज़ख़्म का
मौत जब आनी है तो अब धड़ गया कि सर गया