Tuesday 17 March 2015

देखा जो दो घड़ी तो


देखा जो दो घड़ी तो, खुलने लगी परत
कोई तो मिलेगा कभी, बिन नक़ाब के

चलता हूँ तो गिरता हूँ नज़र में
रुकता हूँ तो गिरता हूँ नज़र से

यूँ तो है दमख़म ज़मीन-ओ-आसमां कम है
पर काटकर परवाज़ की तन्क़ीद हो 'जुर्अत'

सर को झुका के रखना

सर को झुका के रखना, अब मर्ज़ बन गया है
आवाज़ उठाना अब लाज़िम-सा हो गया है

पैसे के पीछे पागल दुनिया क्यों हो रही है
पाया तो खैर क्या है, ईमान औ' खो गया है

खुद को भी ज़्यादा मैं दिखता नहीं हूँ
पता नहीं कोई मुझ में क्या देखता है

वो नज़र क्या दिखाएगी मंज़र
कि जिस में दिल की बीनाई नहीं है

ज़ख़्म पर ज़हर

ज़ख़्म पर ज़हर का मलहम क्या लगा
रग-रग में आह, दर्द मचलने लगा

नासूर न हो जाए कहीं नफरतों का वायरस
'जुर्रत' मुहब्बतों का खेत जोतने लगा