Monday 9 November 2020

कोविड-19 पार्ट-२

 पहले एक गिरफ़्त थी 

जज़्बातों पर

जो इज़हार को बेमानी कर देती थी 

अब पॉज़िटिव हुआ हूँ तो ख़याल आया 

'कोविड-19' वही तो है

पहले दिखता नहीं था 

अब 'टैस्ट रिपोर्ट' में आ जाता है 

कोविड-19

 मौत का तसव्वुर है

या जिए जाने की ख़्वाहिश 

कुछ तो है जो ठहर गया है 

पत्थर पहाड़ पानी पगडंडियों से घूमती हुई 

टेढ़े-मेढ़े रस्तों से

फुटबॉल की तरह लुड़कती हुई ज़िंदगी 

अपने ही 'हैल्थ पैरामीटर्स' पर आ के टिक गई है 

शायद आगे लुड़कने का रास्ता तलाशती है

मौसम का हाल अच्छा नहीं लग रहा 

सफ़र तवील होगा।



Sunday 3 May 2020

सही या ग़लत

सही या ग़लत 

लॉकडाउन के चलते एक सब्ज़ीवाले ने सड़क पे आवाज़ लगाई , मैं भी पहुँच गया - मास्क लगा कर।  सब्ज़ीवाले ने भी एक मटमैला २-३ दिन के पसीने में सना हुआ, कहने को सफ़ेद, मास्क पहन रखा था।  क़रीब ३०-३५ साल का दिखने वाला वो सब्ज़ीवाला मुझे अपने काम में नया लगा। 
मैंने 'रेट्स' पूछे ?
: संतरा कैसे दिया ?
: ६० रुपये बड़े भाई.... गारंटी है एक भी खराब नहीं निकलेगा।  
मैंने देखा संतरे बहुत अच्छे तो क्या अच्छे भी नहीं हैं शायद मैं लेने से मना  न कर दूँ इसलिए ' डिफेंड' कर रहा है।  ख़ैर, मैंने उसके अपने लिए इस्तेमाल किये गए 'बड़े भाई' के सम्बोधन व लॉकडाउन  में उसकी माली हालत को ध्यान में रखते हुए संतरे छांटने शुरू किये। लगे हाथ उसने भी ३-४  संतरे मेरी टोकरी में मुझे दिखाते  हुए  डाल दिए। इस बीच में एक बार फिर मुझे तसल्ली दी कि -बड़े भाई एक भी खराब नहीं निकलेगा। 
मैंने आगे नज़र दौड़ाई।
: केले कैसे दिए? और पपीता ?
उसने कुछ रेट बताया जो लॉकडाउन के रेट्स से काफी ज़्यादा था।  सुनकर मैं हैरान हुआ कि इतना तो नहीं है लेकिन फिर ख़याल आया शायद मुझे चूना लगाना चाहता है - शायद वो ऐसा सोच रहा है कि मैं पहली बार सब्ज़ी खरीद रहा हूँ मुझे रेट्स का कोई अंदाजा नहीं होगा। मुझे थोड़ा सोचता देख के वो बोला -
 'लेकिन बड़े भाई  आपके लिए ........(इतना). 
रेट्स अभी भी बहुत ज़्यादा थे और मैंने उस से ४-५ फल व सब्ज़ी ले लिए थे। 
मछली को आसानी से जाल में फंसता देख के वो थोड़ा आत्मविश्वास से भर गया और ज़्यादा बोल रहा था। मेरा दिमाग इस सोच में था कि इसने मुझे कितने का फटका मारा है।  वो नहीं जानता था कि  बड़े दफ़्तर  में काम करने वाला दिखने वाला,अधेड़ उम्र का, मैं दर-अस्ल होश संभालते ही घर की साग सब्ज़ी लाने लगा था। 
ज़बानी हिसाब लगा कर उसने मुझे बताया तीन सौ पचास रुपये हो गए बड़े भाई। मैं भी इस बीच अपना हिसाब लगा चुका था।  सामान २२०-२३० से एक रुपये ज़्यादा का नहीं था।  मैंने पांच सौ का एक कड़क नोट निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया। उस ने जांचने के अंदाज़ में एक बार आसमान की तरफ़ कर के झट से जेब में डाल  लिया।  मुझे पहले पचास का एक नोट दिया और फिर काफी ढूंड के एक दो सौ का नोट मेरी तरफ बढ़ा दिया।  मैं अपना सामान संभाल चुका था और एक क्षण की झिझक में मैंने उस से नज़रें मिलाई - वो मुझे कुछ और ही 'कॅल्क्युलेशन' करता महसूस हुआ।  
मैंने नोट पकड़ा और अपने घर की ओर चल दिया।  
आधे मिनट के लिए मुझे अपने किए पर शर्म आ गई।  घर पहुँच कर सभी फल व सब्ज़िओं को 'पोटैशियम परमैंगनेट' में धोते हुए मैंने देखा एक-दो  संतरे  तो छीलने की भी ज़रुरत नहीं सीधे 'डस्ट-बिन' में डाल देने लायक थे
मैं कहानी को कोई 'ट्विस्ट' नहीं देना चाहता और न ही अंत में 'मॉरल औफ दी स्टोरी' लिखकर कोई ज्ञान बाँटने की मंशा रखता हूँ 
सोच आप की अपनी है जहाँ तक जाए ।