Tuesday 25 February 2014

पलाश की लाली

फरवरी की सुबह,
मौसम ने U टर्न लिया है ।
जाती हुई सर्द हवाएँ लौट आई हैं,
शायद कुछ हिसाब बाकी हो ।
ऊनी कपड़े,
जो अपने कार्यक्रम के बाद,
ग्रीन रूम में जाने की तैयारी में थे,
अचानक extempore mode में आ  गए हैं ।
शायद संदूकची उनकी,
परतंत्रता की खिल्ली उड़ाती है ।
सूखे पत्तों का अम्बार है,
पलाश के नीचे ।
काले स्याह फफोलों से भरा,
ये पलाश,
एक और जवानी की राह में है ।
गालों की लाली,
पूरे बदन पर छा जाएगी ।
धूप के अभिवादन पर,
दुल्हन श्रृंगार करेगी ।
सूरज का ताप बढ़ेगा,
और नई पत्तियों को जन्म देने के दर्द में,
लालिमा पेशानी से उतर कर,
पैरों में गिर जाएगी ।
सुर्ख़ लाल खून का एक आँसु,
टपक चुका है ।
इस खून की होली में
ज़मीन आसमान एक से लाल हो जाएंगे,
सर्दियों को विधिवत विदा करेंगे,
और नई कोपलों के श्रृंगार में,
पलाश फिर हरा भरा हो जाएगा ।




Sunday 23 February 2014

धूल

हाथ इस कदर गंदे हैं
कूची कलम तो झाड़ पोंछ दी
रंगों से धूल जाती ही नहीं ।

तकिए का किला मज़बूत है
उसके आगे एक लाँन भी है
मिट्टी से मगर गेहूँ की खुशबू जाती ही नहीं ।

चलते चलते दूर आ गए हैं
क्या क्या नहीं पाया, लेकिन
जो खोया है उसकी याद जाती ही नहीं ।

Monday 17 February 2014

ईमान

ईमान का भाव गिर गया है

खरीद लीजिए ।

हमें कौन सा रखना है सम्भालकर,

भाव बढ़ते ही

बेच दीजिए ।

Sunday 16 February 2014

ईमान


दो कौड़ी एक,

 दो कौड़ी दो,

 दो कौड़ी तीन ।

 मेहरबान, कद्रदान, साहिबान,

 और इस तरह होता है आपका,

 दो कौड़ी में,

 ईमान ।

Sunday 9 February 2014

प्लूटो


मुझसे क्या चाहता हैै नहीं बोलता ।
एकटक देखता रहता है ।
मेरी गोद में आ कर बस जाए बस यही सवाल करता है ।
अपने दर्द को भुलाकर मेरी शान की आज भी गवाही देता है ।
 ज़रज़राते पैैर बहुत भारी हो गए हैं,
दिल में हक से रहता है ।
उम्र के बढ़ते ट्रैफिक में ज़िंदगी और मौत की रस्साकसी ज़ारी है ।
ख़ुदा का लिहाज़ न होता
 तो मेरा दिल भी फूट फूट कर रोता ।
किसी दिन ये भी खाली मिठाई का डिब्बा रह जाएगा,
 और हम 'डायबिटीज़' के साथ आगे चल देंगे ।

Friday 7 February 2014

पत्ते


दो पत्ते,

एक हरा एक सूखा,

एक पेड़ पर रहते थे ।

हरा सूखे की ओट में पैदा हुआ,

पक कर जवान हुआ ।

पेड़ को पालने के ग़ुरूर में,

हवा में खूब झूमता था ।

सूखा पत्ता हवा में घबराता था,

पेड़ को कस के पकड़ लेता ।

एक दिन बारिश के साथ, तेज़ हवा चली ।

हरा पत्ता नहाकर खूब नाचा ।

सूखे पत्ते को 'हार्ट अटैक' आया,

वो मर गया ।

Thursday 6 February 2014

वक्त


वक्त बड़ा कारसाज़ है ।

कितने सूरज कितने चाँद गिनकर बोली लगाता है ।

कितने मोती कितने पत्थर नहीं देखता ।

कितनी खुशी कितने ग़म नहीं दिखते ।

कितनी सड़क कितना कच्चा नहीं दिखाता ।

 कितने आए कितने गए

पीर भी पैगम्बर भी

इसकी ब्रेक नहीं लगती ।

मौजों पे सवार

वक्त,

अनथक, दौड़ता है ।

Tuesday 4 February 2014

कुत्ते का जीवन या कुत्ते की मौत

यूँ ही अचानक मेरे पालतू  लेकिन अंग्रेजी कुत्ते ने  मेरी तर्ज़नी  उंगली को 'बर्ड फ्लू'  के चलते एक पांच सितारा होटल के वरिष्ठ खानसामे की तरह बेझिझक चख लिआ । चखना क्या था कि तंदूरी मुर्ग कि टांग जानकार 'पीस'  ले लिआ । रक्त कि धारा प्रवाह बह निकली, साथ ही मेरी जान भी गले तक जा अटकी । मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जिस अदने प्राणी को वफादारी की मिसाल जाना जाता है, जिसके मालिक के लिए जान देने के किस्से सर्वविदित हैं, और तो और जिसे मैने अपने पुत्र के रूप में पाला, यहाँ तक कि भगवान का दर्जा दे डाला उसने मेरे विश्वास को चकनाचूर कर दिया । इस अनहोनी से मन परेशान हो गया । विचार कौंधा, अगर पालतू कुत्ता भी वफादार नहीं तो इंसान से कैसी उम्मीद ।  यों भी मैं इंसान को कुत्ते से ऊपर का दर्ज़ा नहीं देता लेकिन फिर भी इंसान का बच्चा होने पर, खुद को कम से कम कुत्ते से कम नहीं समझता । बचपन में सुना था, पढ़ा था कि कुत्ते के काटने पर पागल हो जाते हैं । सारा पाठ सहसा मेरी नज़रों के आगे घूम गया । क्या मैं भी ? पागल कहलाउँगा ? अच्छा होगा या बुरा ? मैं समझ नहीं पा रहा था क्या मैं अब पागल हो जाउँगा या मैं पहले से ही पागल हूँ ? एक तरफ ये जीवन का जंजाल छूटने की खुशी थी तो दूसरी ओर इस पागल से जीवन का मोह । क्या दुनियाँ अचानक उल्टी दिखने लगेगी ? या फ़िर पागल के पागल होने पर पागल ठीक हो जाएगा ? इसी पागलपन की उधेड़बुन में मैंने देखा मेरा लाडला, कातर नज़रों से ग्लानि भरे अंदाज़ में मेरा दूसरा हाथ चाट रहा है । अचानक मेरा विश्वास जगा । निरीह सा जानवर मुझे जीवन की सीख दे गया।

दुनियाँ में देर है अंधेर नहीं ।

मैं फिर एक कुत्ते का जीवन जीना चाहता हूँ जिस से कुत्ते की मौत मरना न पड़े । इंसान और कुत्ते में शायद यही असमानता है ।

अहसास

अपनी हालत का अहसास नहीं है मुझे
मैंने औरों से सुना हैै कि परेशान हूँ मैं ।

इन्तज़ार में था कि मिलेगी एक झलक
सोचा था कहीं तो ज़मीं से मिलेगा फ़लक ।

रेल की पटरी की तरह चलता चला गया
स्याही ख़त्म हो गई मैं लिखता चला गया ।

अधरों पे मुस्कान लिए फिरता हूँ
रोज़ मैं बार बार छुपछुप के रोता हूँ ।

जीने की कोई अहम तमन्ना न रही
मरने का कोई खास इरादा न रहा ।

आँख

आँख दिखा न पाई ।

फूलों की खुशी पहचान न पाई ।

बारिश में भीगी पत्तियों की गपशप सुन न पाई ।

चाँद के e-mails पढ़ न पाई ।

बादलों की रूई को समेट न पाई ।

तारों की चादर को ओढ़ न पाई ।

नींद से दिल को उठा न पाई ।

...................दिल पर तो यूँ ही दोष धरते हैं

अाँख ही रास्ता दिखा न पाई ।