Tuesday 12 August 2014

ग़ज़ल -5 सुबह से शाम हो गई

सुबह से शाम हो गई
कोशिशें नाकाम हुईं ।

इंकलाबी चाह में
अपनी अना की हार हुई ।

सच के जश्न में चले
ज़बान संगसार हुई ।

रोज़ी के इंतज़ाम में
उम्र यूँ तमाम हुई ।

छल-कपट के राज में
फिर से शह और मात हुई ।

सियासी भेड़चाल में
रूह भी हैरान हुई ।

चेहरों पे चेहरे देख के 
चेहरे की न पहचान हुई ।

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