Thursday 4 September 2014

ग़ज़ल -11 मर मर के रोज़ ही जीते हैं

मर मर के रोज़ ही जीते हैं
चल आज तो खुल के जीते हैं

अब बस दफ़्तर और नहीं
कुछ तो भी कर चल जीते हैं

हैरान हूँ अब रफ़्तार से मैं
ज़रा रुक तो सही चल पीते हैं

अब बस भी कर चल जीते हैं
अब शाम हुई चल पीते हैं

भेजे की बस कर दिल की सुन
अब दिल की प्यास में पीते हैं

अब होश की बात का नाम न ले
चल बे-होशी तक पीते हैं

उम्मीद पे दुनिया क़ायम है
अब छुट्टी है चल जीते हैं

हर मोड़ पे मुश्किल ताक़ में है
मुश्किल को जीत के जीते हैं

कुछ और जो अब के न हो सके
दो घूँट ज़हर के पीते हैं

4 comments:

  1. ले कर हिम्मतों का सुई धागा
    चल उधड़ी जिंदगी को सीते हैं !

    ReplyDelete
  2. हर मोड़ पे मुश्किल ताक़ में है
    मुश्किल को जीत के जीते हैं...!
    वाह! वे टू गो! :)

    ReplyDelete