Friday 22 April 2016

स्माइल

दफ़्तर से लौटा तो तन मन झुलस रहे थे । कुछ काम का बोझ और कुछ मौसम की मार, मैं अनायास ही सोफ़े पर सुस्ताने बैठ गया । चाय की चाह थी या शायद गर्मी में स्कूटर चला कर आया था लेकिन दफ़्तर की परेशानी इन सब कारणों को मात दे रही थी । मैं ज़्यादा देर बैठ न सका, सोफ़े का फ़ैब्रिक मुझे काट रहा था । मेरा दिल एक टाट की चटाई पर पेड़ के नीचे ठण्डी हवा में बैठने को कह रहा था ।
ख़ैर, मैं उठ गया और कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धो कर अगले दिन के कामों पर सोचने लगा ।
इसी बीच, क्या देखता हूँ मेरा पालतू कुत्ता कातर नज़रों से मुझे घूर रहा है । शायद घर से बाहर जाने के लिए बेचैन था । मुझे अपनी और उसकी परेशानी का एक हल नज़र आया -सोचा थोड़ा टहल के आता हूँ । ज़ंजीर उसके गले में डाली और चल पड़े हम दोनो ।
घर से थोड़ी दूरी पर कम्यूनिटी सैंटर था । उसके सामने से गुज़रे तो क्या देखता हूँ -पण्डाल, कनात, कुर्सी मेज़, सोफ़े पत्तल आदि सामान बिखरा पड़ा है । शायद कल रात किसी की शादी हुई लगती है यहाँ । कुछ ग़रीब बच्चे जो वहाँ खुले में पढ़ने आया करते थे उस बचे खुचे सामान से खेल रहे हैं ।
ध्यान से देखा - तो एक छोटी-सी बच्ची सोफ़े पर दुल्हन की तरह शरमाने का प्रयास कर रही थी और एक लड़का दोनो हथेलियों से कैमरा बनाकर उसको कह रहा है - "स्माइल"

वो सोफ़ा उन बच्चों को बिलकुल काट नहीं पा रहा था । 

7 comments:

  1. Dil ke arman apne kuch aise bayan kar diye,
    Is choti si kahani me sare anubhav bhar diye

    Great sir

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  2. Shukriya Pradeep ji , bahut sundar shabdo'n mein aapne prashansa ki hai :)

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  3. #MannKiBaat...Continue with this :) As we write, we find ourselves more :)

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  4. Thank you Rita ji... Indeed.. and also there's huge diff between writing your experience and writing fiction.. The more the reality the more it is easier to express

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  5. वाह! एक अत्यन्त सजीव चित्रण! कहानी में "स्माइल" पढ़ कर चेहरे पर स्व्यं एक मुस्कान आ गयी.. :)

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  6. शुक्रिया :)) लिखना सफल हो गया :))

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