Tuesday 25 February 2014

पलाश की लाली

फरवरी की सुबह,
मौसम ने U टर्न लिया है ।
जाती हुई सर्द हवाएँ लौट आई हैं,
शायद कुछ हिसाब बाकी हो ।
ऊनी कपड़े,
जो अपने कार्यक्रम के बाद,
ग्रीन रूम में जाने की तैयारी में थे,
अचानक extempore mode में आ  गए हैं ।
शायद संदूकची उनकी,
परतंत्रता की खिल्ली उड़ाती है ।
सूखे पत्तों का अम्बार है,
पलाश के नीचे ।
काले स्याह फफोलों से भरा,
ये पलाश,
एक और जवानी की राह में है ।
गालों की लाली,
पूरे बदन पर छा जाएगी ।
धूप के अभिवादन पर,
दुल्हन श्रृंगार करेगी ।
सूरज का ताप बढ़ेगा,
और नई पत्तियों को जन्म देने के दर्द में,
लालिमा पेशानी से उतर कर,
पैरों में गिर जाएगी ।
सुर्ख़ लाल खून का एक आँसु,
टपक चुका है ।
इस खून की होली में
ज़मीन आसमान एक से लाल हो जाएंगे,
सर्दियों को विधिवत विदा करेंगे,
और नई कोपलों के श्रृंगार में,
पलाश फिर हरा भरा हो जाएगा ।




No comments:

Post a Comment